Meerabai Ka Jeevan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1498 ई॰ से सन् 1546 ई॰)

जीवन परिचय- कृष्ण की प्रेम-दीवानी और पीर की गायिका मीराबाई जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी की प्रपौत्री एवं रत्नसिंह की पुत्री थीं। इनका जन्म सन् 1498 ई॰ में राजस्थान में मेड़ता के समीप चौकड़ी नामक गाॅंव में हुआ था। बचपन में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था; अतः इनका पालन-पोषण दादा की देख-रेख में राजसी ठाट-बाट के साथ हुआ। इनके दादा राव दूदाजी बड़े धार्मिक स्वभाव के थे, जिनका मीरा के जीवन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। मीरा जब मात्र 8 वर्ष की थीं, तभी उन्होंने अपने मन में कृष्ण को पति-रूप में स्वीकार कर लिया था। इनकी भक्ति-भावना के विषय में डाॅ॰ राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- "बीस वर्ष की अवस्था में ही मीरा विधवा हो गयीं और जीवन का लौकिक आधार छिन जाने पर अब स्वाभाविक रूप से उनका असीम स्नेह, अनन्त प्रेम और अद्भुत प्रतिभास्त्रोत गिरधरलाल की ओर उमड़ पड़ा। मेवाड़ की राजशक्ति का घोर विरोध सहन करके, सभी कष्टों को सहन करते हुए विष का प्याला पीकर भी उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति-भावना को अक्षुण्ण बनाये रखा।"

मीरा का विवाह चित्तौड़ के महाराणा साॅंगा के सबसे बड़े पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ समय बाद ही इनके पति की असामयिक मृत्यु हो गयी। इसका मीरा के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा; क्योंकि वह तो पहले से ही भगवान् कृष्ण को अपने पति-रूप में स्वीकार कर चुकी थीं। वे सदैव श्रीकृष्ण के चरणों में अपना ध्यान केन्द्रित रखती थीं। मीरा के इस कार्य से परिवार के लोग रुष्ट रहते थे; क्योंकि उनका यह कार्य राजघराने की प्रतिष्ठा के विपरीत था।

मीरा के भजन एवं गीतों में सच्चे प्रेम की पीर और वेदना का विह्वल रूप एक साथ पाया जाता है। मीरा को पूरा संसार मिथ्या प्रतीत होता है। इसलिए वह कृष्ण-भक्ति को अपने जीवन के आधार के रूप में स्वीकार करती हैं। कहा जाता है कि 'हरि तुम हरौ जन की पीर' पंक्ति गाते-गाते सन् 1546 ई॰ में मीराबाई द्वारिका में कृष्ण की भक्ति-मूर्ति में विलीन हो गयीं।

मीराबाई की प्रमुख रचनाऍं इस प्रकार हैं-

'मीरा पदावली', 'नरसीजी मायरा', 'गीत-गोविन्द की टीका', 'राग-गोविन्द', 'राग-सोरठ के पद', 'मीराबाई की मल्हार', 'गरबा गीत', 'राग-विहाग' तथा 'फुटकर पद'।

मीराबाई के जीवन का उद्देश्य कविता करना नहीं था। उनके भजन एवं गीत-संग्रह उनकी रचनाओं के रूप में जाने जाते हैं। 'नरसीजी का मायरा' में गुजरात के प्रसिद्ध भक्त-कवि नरसी की प्रशंसा की गयी है। इनके फुटकर पदों में विभिन्न रागों में रचित पद मिलते हैं। 'मीरा पदावली' में इनके पदों का संकलन है, यही इनकी प्रसिद्धि का एकमात्र प्रकाशस्तम्भ है।

कृष्ण-भक्ति मीरा के जीवन का सम्बल था। इसलिए वे कठिन-से-कठिन लौकिक कष्टों को सहर्ष झेल गयीं। वे स्पष्ट शब्दों में कहती हैं- "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।" मीरा के इस कथन में उनके कृष्ण-प्रेम की सच्चाई है। उनकी यही भक्ति-भावना काव्य-साधना के रूप में हिन्दी-साहित्य को प्रकाशमय बनाती है। कृष्ण के प्रति उनका अनन्य प्रेम दाम्पत्य जीवन के रूप में भी प्रकट हुआ है। यही कारण है कि उनके काव्य में श्रृंगार और शान्त रस की धारा संगम के जल की भाॅंति एक साथ बहती है। मीरा के पदों में माधुर्य का जो रूप मिलता है, उससे भक्त क्या सामान्यजन भी आनन्द-विभोर हो उठते हैं। मीरा की भक्ति में सहजता, सरसता और तन्मयता का रूप एक साथ पाया जाता है। मीरा के काव्य में कहीं भी पाण्डित्य-प्रदर्शन नहीं मिलता है। मीरा के जीवन का उद्देश्य प्रेम, भक्ति एवं समर्पण द्वारा अपने प्रियतम कृष्ण को पाना था, काव्य-सृजन द्वारा यश प्राप्त करना नहीं।

मीरा की भाषा का उदय उनके हृदयपक्ष से हुआ है। इसलिए इसमें सहजता, सरलता एवं तरलता है। मीरा की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है। इसलिए इसमें कहीं-कहीं दुरूहता प्रतीत होती है। इनकी भाषा में गुजराती एवं पंजाबी के शब्द भी पाये जाते हैं। मीरा की शैली भावमय मुक्तक शैली है। इसमें हृदय की तन्मयता, संगीतात्मकता और लयबद्धता पायी जाती है। भाषा-शैली की दृष्टि से मीरा का काव्य सुमधुर और भावमय है। कृष्ण-विरह की पीड़ा इनके पदों में वेदना बनकर बह निकली है। इनके भावना-चित्र अश्रुओं के पवित्र जल में धुलकर ऐसे पावन हो गये हैं कि श्रोता के कानों में पड़ते ही उसके जीवन को भी धन्य कर देते हैं।

कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों में मीरा का अद्वितीय स्थान है। आज भी मीरा की भक्ति लोगों के हृदय का स्पन्दन है। मीरा अपने दर्दमय गीतों से सदैव अमर रहेंगी। उनको यह सर्वोच्च स्थान कृष्ण के प्रति समर्पित प्रेम से ही प्राप्त हुआ है।

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