Surdas Ka Jivan Parichay

(जीवनकाल सन् 1478 ई॰ से सन् 1583 ई॰)

सूरदास हिन्दी के भक्त-कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं। इन्होंने अपने पदों में श्रीकृष्ण की बाललीलाओं और प्रेमलीलाओं का मनमोहक चित्रण किया है। इनका 'सूरसागर' तो मानो वात्सल्य और श्रृंगार का सागर है। इनकी अन्धी ऑंखों ने जिस रूप एवं भाव-सौन्दर्य को देखा, उसे देखने के लिए 400 वर्षों से कवियों की ऑंखें तरस रही थीं। इनमें न जाने कैसा प्रकाश था, जो प्रकृति और मानव-हृदय की असीम गहराइयों तक पहुॅंच जाता था। वात्सल्य एवं श्रृंगार पर आधारित इनकी अद्वितीय रचनाओं के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, "वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द ऑंखों से किया, उतना संसार के किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का वे कोना-कोना झाॅंक आए।"

जीवन परिचय- महाकवि सूरदास का जन्म रुनकता नामक ग्राम में सन् 1478 ई॰ में पं॰ रामदास के घर हुआ था। पं॰ रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् सीही नामक स्थान को सूरदास का जन्मस्थल मानते हैं। सूरदासजी जन्मान्ध थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। कुछ लोगों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं मानव-स्वभाव का जैसा सूक्ष्म और सुन्दर वर्णन सूरदास ने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध व्यक्ति कर ही नहीं सकता। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः ये बाद में अन्धे हुए होंगे।

सूरदासजी श्री वल्लभाचार्य के शिष्य थे। ये मथुरा के गऊघाट पर श्रीनाथजी के मन्दिर में रहते थे। सूरदास का विवाह भी हुआ था। विरक्त होने से पहले ये अपने परिवार के साथ ही रहा करते थे। पहले ये दीनता के पद गाया करते थे, किन्तु वल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने के बाद ये कृष्णलीला का गान करने लगे। कहा जाता है कि एक बार मथुरा में सूरदासजी से तुलसीदासजी की भेंट हुई थी और धीरे-धीरे दोनों में प्रेम-भाव बढ़ गया था। सूर से प्रभावित होकर ही तुलसीदास ने 'श्रीकृष्णगीतावली' की रचना की थी।

सूरदासजी की मृत्यु सन् 1583 ई॰ के लगभग गोवर्धन के पास पारसौली नामक ग्राम में हुई थी। मृत्यु के समय महाप्रभु वल्लभाचार्य के सुपुत्र विट्ठलनाथजी वहाॅं उपस्थित थे। अन्तिम समय में इन्होंने गुरुवन्दना-सम्बन्धी यह पद गाया था-

भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो।

श्रीबल्लभ नख-छंद-छटा बिनु सब जग माॅंझ ॲंधेरो।।

सूरदासजी महान् काव्यात्मक प्रतिभा से सम्पन्न कवि थे। उनके काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है। अपनी विलक्षण मौलिक प्रतिभा एवं प्रभावपूर्ण भावाभिव्यक्ति के माध्यम से इन्होंने कृष्णभक्ति की अगाध एवं अनन्त भावधारा को प्रवाहित किया। सूरदास ने अपने काव्य में भावपक्ष को सर्वाधिक महत्त्व दिया। गहन दार्शनिक भावों को कोमल एवं सुकुमार भावनाओं के माध्यम से व्यक्त करना इनके काव्य की प्रमुख विशेषता है। इन्होंने श्रीकृष्ण के सगुण रूप के प्रति सखाभाव की भक्ति का निरूपण किया और इस आधार पर मानव-हृदय की कोमल भावनाओं का प्रभावपूर्ण चित्रण किया। इनके काव्य में राधा-कृष्ण की लीला के विभिन्न रूपों का मनोहारी चित्रण हुआ है। वात्सल्य भाव की जो अभिव्यक्ति सूर काव्य में हुई है, उसका उदाहरण विश्व-साहित्य में मिल पाना दुर्लभ है। यही नहीं, विरह-वर्णन की दृष्टि से भी इन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। 'भ्रमरगीत' में गोपियों एवं उद्धव के संवाद के माध्यम से सूर ने अत्यन्त मर्मस्पर्शी विरहपूर्ण स्थितियों का चित्रण किया है।

भक्तशिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्थों की संख्या 25 मानी जाती है।

 किन्तु इनके तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुए हैं-

  1. सूरसागर- 'सूरसागर' सूरदास की एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे सभी विद्वानों ने प्रामाणिक माना है। इसके सवा लाख. पदों में से केवल 8-10 हजार पद ही उपलब्ध हो पाए हैं। 'सूरसागर' पर 'श्रीमद्भागवत' का प्रभाव है। सम्पूर्ण 'सूरसागर' एक गीतिकाव्य है। इसके पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं।
  2. सूरसारावली- यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किन्तु कथावस्तु, भाव, भाषा, शैली और रचना की दृष्टि से निःसन्देह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है। इसमें 1,107 छन्द हैं।
  3. साहित्य-लहरी- 'साहित्य-लहरी' में सूरदास के 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है। 'साहित्य-लहरी' में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं पर श्रीकृष्ण की बाललीला का वर्णन भी हुआ है तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत' की कथा के अंशों की भी झलक है।

सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपक्ष और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण हैं। सभी पद गेय हैं; अतः उनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्यक्त सूक्ष्म दृष्टि का ही प्रभाव है कि आलोचक अब इनके अन्धा होने में भी सन्देह करने लगे हैं।

सूरदासजी ने सरल एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। इनका काव्य मुक्तक शैली पर आधारित है। कथा-वर्णन शैली का प्रयोग हुआ है। दृष्टकूट पदों में कुछ क्लिष्टता का समावेश अवश्य हो गया है।

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