Dr Rajendra Prasad Ka Jeevan Parichay
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद एक सफल राजनीतिज्ञ एवं प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में इनका योगदान सर्वविदित है। देशभक्ति, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और निर्भीकता इनके रोम-रोम में व्याप्त थी। राजनीति के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में भी इनका योगदान सदैव वन्दनीय रहेगा। ये केवल राजनेता ही नहीं थे, वरन् एक श्रेष्ठ विचारक, वक्ता और लेखक भी थे। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से इन्होंने हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया। सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न विषयों पर इनके द्वारा लिखे गए लेख हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
जीवन परिचय- राजेन्द्रप्रसादजी का जन्म सन् 1884 ई० में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। ये बड़े मेधावी छात्र थे। इन्होंने 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से एम० ए० और एम० एल० [तत्कालीन 'लाॅ' (कानून) की डिग्री] की परीक्षाऍं उत्तीर्ण कीं। परिश्रमी और कुशाग्रबुद्धि छात्र होने के कारण ये अपनी कक्षाओं में सदैव प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते रहे। अपना अध्ययन पूरा करने के पश्चात् इन्होंने मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में अध्यापन-कार्य किया। सन् 1911 ई० में वकालत आरम्भ की और सन् 1920 ई० तक कलकत्ता (कोलकाता) और पटना उच्च न्यायालय में वकालत का कार्य किया।
गांधीजी के आदर्शों, सिद्धान्तों और आजादी के आन्दोलन से प्रभावित होकर सन् 1920 ई० में इन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरी तरह देशसेवा में लग गए।
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद तीन बार भारतीय राष्ट्रीय काॅंग्रेस के सभापति चुने गए और सन् 1962 ई० तक भारत गणराज्य के राष्ट्रपति रहे। सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, निर्भीकता, देशभक्ति, साधुता और सादगी उनके रोम-रोम में बसी हुई थी। सन् 1962 ई० में उन्हें भारत की सर्वोच्च उपाधि 'भारत-रत्न' से अलंकृत किया गया। ये जीवनपर्यन्त हिन्दी और हिन्दुस्तान की सेवा करते रहे। सन् 1963 ई० में इनका स्वर्गवास हो गया।
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद एक सफल लेखक थे। यद्यपि बहुत समय तक ये अंग्रेजी भाषा में ही अपनी रचनाऍं प्रस्तुत करते रहे; फिर भी हिन्दी से इनका विशेष लगाव था और हिन्दी के विकास हेतु ये जीवनपर्यन्त कार्य करते रहे। इन्हीं के प्रयासों के फलस्वरुप कलकत्ता में 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की स्थापना हुई। ये 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' नागपुर के सभापति रहे तथा 'नागरी प्रचारिणी सभा' और 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा' के माध्यम से हिन्दी को समृद्ध बनाने में अपना योगदान देते रहे। इन्होंने 'देश' नामक पत्रिका का सफलतापूर्वक सम्पादन किया और इस पत्रिका के माध्यम से भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया। डॉ० राजेन्द्रप्रसाद एक कुशल वक्ता भी थे। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख एवं व्याख्यान प्रकाशित होते रहते थे। गहन अध्ययन एवं प्रखर तर्कशक्ति से सम्पन्न होने के कारण इन्होंने राजनीति, समाज, शिक्षा, संस्कृति, जन-सेवा आदि विषयों पर कई सशक्त रचनाऍं प्रस्तुत कीं। जनसेवा, राष्ट्रीय भावना एवं सर्वजन हिताय की भावना ने इनके साहित्य को विशेष रूप से प्रभावित किया। इनकी रचनाओं में उद्धरणों और उदाहरणों की प्रचुरता है तथा कुछ रचनाओं में अत्यन्त प्रभावपूर्ण भावाभिव्यक्ति भी देखने को मिलती है।
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद उच्चकोटि के राजनेता होने के साथ ही एक श्रेष्ठ साहित्यकार भी थे। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा हिन्दी-साहित्य की पर्याप्त सेवा की है। इन्होंने राजनैतिक, सामाजिक और दार्शनिक विषयों के साथ-साथ सांस्कृतिक विषयों पर भी लेखनी चलाई है अथवा भाषण दिए हैं।
इनकी प्रमुख रचनाऍं इस प्रकार हैं-
'भारतीय शिक्षा', 'गांधीजी की देन', 'शिक्षा और संस्कृति', 'साहित्य', 'मेरी आत्मकथा', 'बापूजी के कदमों में', 'मेरी यूरोप यात्रा', 'संस्कृति का अध्ययन', 'चम्पारन में महात्मा गांधी' तथा 'खादी का अर्थशास्त्र'।
इसके अतिरिक्त इनके भाषणों के कई संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं।
भाषा-शैली
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद सदैव सरल और सुबोध भाषा के पक्षपाती रहे। इनकी भाषा व्यावहारिक है; इसलिए इसमें संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, बिहारी आदि भाषाओं के शब्दों का समुचित प्रयोग हुआ है। इन्होंने आवश्यकतानुसार ग्रामीण कहावतों और ग्रामीण शब्दों के भी प्रयोग किए हैं। इनकी भाषा में कहीं भी बनावटीपन की गन्ध नहीं आती। इन्हें आलंकारिक भाषा के प्रति भी मोह नहीं था। इस प्रकार इनकी भाषा सरल, सुबोध, स्वाभाविक और व्यावहारिक है।
भाषा की भाॅंति डाॅ० राजेन्द्रप्रसाद की शैली में भी कहीं पर कोई आडम्बर नहीं है। इन्होंने आवश्यकतानुसार छोटे अथवा बड़े वाक्यों का प्रयोग किया है।
मुख्य रूप से इनकी शैली के दो रूप प्राप्त होते हैं-
- साहित्यिक शैली- इस शैली में तत्सम-शब्दावली का प्रयोग हुआ है। वाक्यों की रचना सुगठित है। भावों और विचारों के अनुकूल इनकी इस शैली में स्थान-स्थान पर परिवर्तन भी दिखाई देते हैं।
- भाषण शैली- राजनेता होने के कारण इन्हें प्रायः भाषण देने पड़ते थे और अपनी बात को श्रोताओं तक पहुॅंचाना होता था। इसलिए इस शैली में देशी भाषाओं तथा उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है। शब्दों की दुरुहता तो इस शैली में कहीं पर भी नहीं है।
इसके अतिरिक्त डॉ० राजेन्द्रप्रसाद की रचनाओं में यत्र-तत्र विवेचनात्मक, भावात्मक तथा आत्मकथात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं।
डॉ० राजेन्द्रप्रसाद 'सादा जीवन और उच्च विचार' के प्रतीक थे। यही बात इनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होती है। अपने विचारों की सरल और सुबोध अभिव्यक्ति के लिए ये सदैव याद किए जाऍंगे। हिन्दी के आत्मकथा-साहित्य के अन्तर्गत इनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'मेरी आत्मकथा' का विशेष स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और उत्साही प्रचारक थे। इन्होंने जीवनपर्यन्त हिन्दी की सेवा की। इनकी सेवाओं के लिए हिन्दी-जगत् इनका सदैव ऋणी रहेगा।
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