Ayodhya Singh Upadhyay Ka Jeevan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1865 ई॰ से सन् 1945 ई॰)

जीवन परिचय- अयोध्यासिंह उपाध्याय का जन्म सन् 1865 ई॰ में निजामाबाद, जिला आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित भोलासिंह उपाध्याय था। 5 वर्ष की अवस्था में फारसी के माध्यम से इनकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। वर्नाक्यूलर मिडिल पास करके ये क्वींस कालेज, बनारस में ॲंग्रेजी पढ़ने गये पर अस्वस्थता के कारण अध्ययन छोड़ना पड़ा। स्वाध्याय से इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, फारसी और ॲंग्रेजी में अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। निजामाबाद के मिडिल स्कूल के अध्यापक, कानूनगो और काशी विश्वविद्यालय में अवैतनिक-शिक्षक के पदों पर इन्होंने कार्य किया। सन् 1945 ई॰ में इनका स्वर्गवास हो गया।

कृतित्व एवं व्यक्तित्व- इनकी प्रमुख काव्य-रचनाऍं 'प्रियप्रवास' (खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य), 'वैदेही-वनवास' (करुणरस प्रधान महाकाव्य), 'पारिजात' (स्फुट गीतों का क्रमबद्ध संकलन), 'चुभत-चौपदे', 'चोखे-चौपदे' (दोनों बोलचाल वाली मुहावरों युक्त भाषा में लिखित स्फुट काव्य-संग्रह) और 'रसकलश' (ब्रजभाषा के छन्दों का संकलन) हैं। 'अधखिला-फूल' (उपन्यास), 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' (उपन्यास), 'रुक्मिणी परिणय', 'प्रद्युम्न विजय' (नाटक) आदि गद्य रचनाओं के अतिरिक्त आलोचनात्मक और अनूदित रचनाऍं भी हैं। हरिऔध जी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि एवं गद्यकार थे।

साहित्यिक योगदान

ये पहले ब्रजभाषा में कविता किया करते थे, 'रसकलश' जिसका सुन्दर उदाहरण है। महावीरप्रसाद द्विवेदी के प्रभाव से ये खड़ी-बोली के क्षेत्र में आये और खड़ी बोली काव्य को नया रूप प्रदान किया। भाषा, भाव, छन्द और अभिव्यंजना की घिसीपिटी परम्पराओं को तोड़कर इन्होंने नयी मान्यताऍं स्थापित ही नहीं कीं, अपितु उन्हें मूर्त रूप भी प्रदान किया। इनकी बहुमुखी प्रतिभा और साहस के कारण ही काव्य के भावपक्ष और कलापक्ष को नवीन आयाम प्राप्त हुए।

वर्ण्य विषय की विविधता हरिऔध जी की प्रमुख विशेषता है। यही कारण है कि इनके काव्य वृत्त में भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल के उज्ज्वल बिन्दु समाहित हो सके हैं। प्राचीन कथानकों में नवीन उद्भावनाओं के दर्शन 'प्रिय प्रवास', 'वैदेही-वनवास' आदि सभी रचनाओं में होते हैं। ये काव्य के 'शिव' रूप का सदैव ध्यान रखते थे। इसी हेतु इनके राधा-कृष्ण, राम-सीता भक्तों के भगवान मात्र न होकर जननायक और जनसेवक हैं। लोकमंगल भावना ही कवि के काव्य का श्रृंगार है-

"विपत्ति से रक्षण सर्वभूत का, सहाय होना असहाय जीव का।

उबारना संकट से स्वजाति को, मनुष्य का सर्वप्रधान कृत्य है।"

प्रकृति वर्णन- प्रकृति के विविध रूपों और प्रकारों का सजीव चित्रण हरिऔध जी की अन्यान्य विशेषताओं में से एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। आपके काव्य में प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण हुआ है-

"दिवस का अवसान समीप था, गगन पर कुछ लोहित हो चला।

तरु शिखर पर थी अवराजती, कमलिनी-कुल-बल्लभ की प्रभा।"

रस- भावुकता के साथ मौलिकता को भी इनके काव्य की विशेषता कहा जा सकता है। हरिऔधजी मूलतः करुण और वात्सल्य रस के कवि थे। करुण रस को ये प्रधान रस मानते थे और उसकी मार्मिक व्यंजना इनके काव्य में सर्वत्र देखने को मिलती है। वात्सल्य और विप्रलम्भ श्रृंगार के हृदयस्पर्शी चित्र प्रियप्रवास में यथेष्ट है। अन्य रसों के भी सुन्दर उदाहरण इनके स्फुट काव्य में मिलते हैं।

भाषा की जैसी विविधता हरिऔधजी के काव्य में है, वैसी विविधता महाकवि निराला के अतिरिक्त अन्य किसी के काव्य में नहीं है। इन्होंने कोमलकान्त पदावलीयुक्त ब्रजभाषा-"रसकलश" में संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली-"प्रिय प्रवास" में, मुहावरेयुक्त बोलचाल की खड़ी बोली-"चोखे-चौपदे" और "चुभते-चौपदे" में पूर्ण अधिकार और सफलता के साथ प्रयुक्त की है। आचार्य शुक्ल ने इसीलिये इन्हें "द्विकलात्मक कला" में सिद्धहस्त कहा है। इन्होंने प्रबन्ध और मुक्तक शैलियों में सफल काव्य-रचनाऍं की हैं। इतिवृत्तात्मक, मुहावरेदार, संस्कृत काव्य, चमत्कारपूर्ण सरल हिन्दी शैलियों का अभिव्यंजना-शिल्प की दृष्टि से सफल प्रयोग भी किया है।

अलंकार एवं छन्द योजना- अलंकारों का सहज और स्वाभाविक प्रयोग इनके काव्य में है। इन्होंने हिन्दी के पुराने तथा संस्कृत छन्दों को अपनाया है। कवित्त, सवैया, छप्पय, दोहा आदि इनके पुराने प्रिय छन्द हैं और इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित शिखरिणी, मालिनी, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित आदि संस्कृत वर्णवृत्तों का प्रयोग कर इन्होंने हिन्दी छन्दों के क्षेत्र में युगान्तर ही उपस्थित कर दिया।

ये 'कविसम्राट', 'साहित्य-वाचस्पति' आदि उपाधियों से सम्मानित हुए। अपने जीवनकाल में अनेक साहित्य सभाओं और हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहे। हरिऔध की साहित्यिक सेवाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। निस्संदेह ये हिन्दी साहित्य में खड़ी बोली के उन्नायकों की पंक्ति में एक महान् विभूति हैं।

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