Rahul Sankrityayan Ka Jeevan Parichay

(जीवनकाल सन् 1893 ई० से सन् 1963 ई०)

जीवन परिचय- राहुल सांकृत्यायन हिन्दी साहित्य की अद्वितीय विभूति हैं तथा आप हिन्दी के महान् उपासक हैं। आपका जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में पन्दहा नामक ग्राम में अपने नाना पं० रामशरण पाठक के यहाॅं, 9 अप्रैल, सन् 1893 ई० में हुआ था। आपके पिता पं० गोवर्द्धन पाण्डे, कनेला ग्राम में रहते थे। वे कट्टर धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। राहुलजी का बचपन का नाम केदारनाथ था। संकृति गोत्र होने के कारण आप सांकृत्यायन कहलाये। बौद्ध धर्म में आस्था होने के कारण आपने अपना नाम बदलकर राहुल रख लिया तथा आप राहुल सांकृत्यायन इस नाम से प्रसिद्ध हुए।

आपकी प्रारम्भिक शिक्षा रानी की सराय और निजामाबाद में हुई। आपने सन् 1907 ई० में उर्दू मिडिल पास की। आपके पिता की तीव्र इच्छा थी कि आप आगे भी पढ़ाई करें, परन्तु बौद्ध धर्म में आस्था हो जाने के कारण आपका मन अध्ययन से विरत हो गया। आपके नाना सेना में सिपाही रहे थे। उनके मुख से दक्षिण भारत की यात्रा के अनुभव सुन कर आप के मन में घूमने की इच्छा बलवती होती चली गयी। तत्पश्चात् उन्होंने तिब्बत, सम्पूर्ण भारत, एशिया, यूरोप सोवियत भूमि और लंका की भूमि पर यात्राऍं करते हुए अपना जीवन बिताया। बाद में घुमक्कड़ों के निर्देशन के लिए आपने 'घुमक्कड़ शास्त्र' लिख डाला। आपने कभी विधिवत् शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। विद्यालय में तो आपने प्रवेश ही नहीं लिया था। अपने घूमने के अनुभव पर ही आपने अपने साहित्य की सर्जना की तथा हिन्दी की अथक् सेवा करते हुए 14 अप्रैल, सन् 1963 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।

राहुलजी को साहित्य लिखने की प्रेरणा, पालि साहित्य और संस्कृत के अध्ययन से ही प्राप्त हुई। आपने पाॅंच बार तिब्बत, लंका और सोवियत भूमि की यात्रा की थी और बौद्ध साहित्य का अध्ययन किया तथा उस ज्ञान को विभिन्न रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया। वे एशिया और यूरोप की 36 भाषाओं के ज्ञाता थे। आपने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रावृत्त, निबन्ध, आत्मकथा, जीवनी, साहित्यालोचन, राजनीति और इतिहास आदि विषयों पर लगभग 150 ग्रन्थों की रचना की है।

राहुलजी की प्रमुख रचनाऍं इस प्रकार हैं-

  1. यात्रा साहित्य- मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी यूरोप यात्रा, लंका, मेरी लद्दाख यात्रा, रूस में पच्चीस मास, जापान, ईरान, घुमक्कड़शास्त्र एवं मंगोलिया सम्बन्धी यात्रा वृत्तान्त।
  2. कहानी संग्रह- वोल्गा से गंगा (संग्रह) , कनैला की कथा, सतमी के बच्चे, बहुरंगी मधुपरी आदि।
  3. उपन्यास- जय यौधेय, दिवोदास, सिंह सेनापति, विस्मृत यात्री, मधुर स्वप्न, सप्तसिन्धु आदि।
  4. जीवनी- महामानव बुद्ध, कार्ल मार्क्स, लैनिन, स्टालिन, सरदार पृथ्वीसिंह, नये भारत के नये नेता, असहयोग के मेरे साथी, वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली, आदि।
  5. आत्मकथा- मेरी जीवन-यात्रा।
  6. साहित्यालोचन- हिन्दी काव्यधारा, दक्खिनी हिन्दी धारा।
  7. धर्म और दर्शन- बौद्ध दर्शन, दर्शन-दिग्दर्शन, धम्मपद, मज्झिम निकाय, बुद्धचर्या आदि।
  8. विज्ञान- विश्व की रूपरेखा।
  9. कोश ग्रन्थ- शासन शब्दकोश, राष्ट्रभाषा कोश, तिब्बती हिन्दी कोश।

भाषा-शैली

राहुलजी की यात्रा-साहित्य और निबन्धों की भाषा सहज व्यावहारिक है। वे भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे। आपने जन-साधारण की समझ में आने वाली सहज स्वाभाविक सरल, सुबोध भाषा का प्रयोग किया है। आपकी भाषा तत्सम् शब्दावली से ओतप्रोत परिष्कृत खड़ी बोली है। आपने यत्र-तत्र उर्दू और ॲंग्रेजी के सरल प्रचलित शब्दों का प्रयोग भी किया है। कहीं-कहीं आपने मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग किया है, जिससे भाषा में सजीवता आ गई है। राहुलजी ने सूक्तियों और उद्धरणों का मुक्त भाव से प्रयोग किया है। यह कहा जा सकता है कि राहुलजी की भाषा सरल, सुबोध, व्यावहारिक खड़ी बोली है।

विषयों की विविधता के कारण आपकी शैली में भी विविधता आ गई है। आपके साहित्य में प्रयुक्त विविध शैलियाॅं निम्न प्रकार हैं-

  1. वर्णनात्मक शैली- इसका प्रयोग आपने यात्रावृत्तों और कथा साहित्य के वर्णनों में किया है। चित्रोपम सजीवता एवं सहज प्रवाह आपकी वर्णनात्मक शैली की विशेषता है। वर्णनात्मक शैली के प्रयोग से आपके वर्णनों में सजीवता और रोचकता बनी रहती है।
  2. विचारात्मक शैली- राहुलजी के गम्भीर विचारक एवं दर्शनशास्त्री एवं उनकी शैली में विचारों की प्रधानता विद्यमान है।
  3. विवेचनात्मक शैली- किसी विषय का विवेचन करते समय आपने विवेचनात्मक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में आपका चिन्तन और पाण्डित्य देखने को मिलता है।
  4. व्यंग्यात्मक शैली- रूढ़ियों और अन्धविश्वास के प्रमुख आलोचक राहुलजी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर बड़े चुटीले व्यंग्य किए हैं। आपके साहित्यिक व्यंग्य भी तीखे होते हैं। इसके अतिरिक्त आपकी रचनाओं में सूक्ति शैली, उद्धरण शैली, संलाप शैली के भी दर्शन होते हैं।

अपनी भाषा-शैली तथा स्वतन्त्र विचारों के लिए आप हिन्दी जगत में सदैव एक विशिष्ट पद के अधिकारी रहेंगे। आप भारतीय साहित्यकारों में सबसे अधिक पर्यटनशील रहे, अतः आपका जीवन अनुभव व्यापक एवं विस्तृत था। आपने अपने विराट् साहित्य सृजन से हिन्दी भाषा तथा साहित्य के विकास में विशिष्ट योगदान दिया है। उसके लिए हिन्दी जगत् आपको सदैव स्मरण करता रहेगा।


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