Sumitranandan Pant Ka Jivan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1900 ई॰ से सन् 1977 ई॰)

प्रकृति के सुकुमार कवि पन्तजी का काव्य उस झरने के समान है, जो अपनी लय और ताल में पहाड़ों की ऊॅंचाई से धरती की गोद में आता है और फिर उसकी ही चेतना का अंग बन जाता है। पन्तजी का सम्पूर्ण काव्य आधुनिक साहित्य-चेतना का प्रतीक है। उसमें धर्म भी है, दर्शन भी; सामाजिक जीवन का चित्रण भी है, नैतिकता का पहलू भी; भौतिकता भी है, आध्यात्मिकता भी; सुकुमार प्रकृति भी है और उद्दण्ड प्रकृति भी। वास्तव में इनका काव्य काव्य-रसिकों के कण्ठ का हार है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सुमित्रानन्दन 'पन्त' के सन्दर्भ में लिखा है, "पन्त केवल शब्दशिल्पी ही नहीं, महान् भाव-शिल्पी भी हैं और सौन्दर्य के निरन्तर निखरते सूक्ष्म रूप को वाणी देनेवाले, एक सम्पूर्ण युग को प्रेरणा देनेवाले प्रभाव-शिल्पी भी।"

जीवन परिचय- अमर गायक कविवर सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म 20 मई, सन् 1900 ई॰ को, अल्मोड़ा के निकट कौसानी ग्राम में हुआ था। जन्म के 6 घण्टे के पश्चात् ही इनकी माता का देहान्त हो गया और पिता तथा दादी के वात्सल्य की छाया में इनका प्रारम्भिक लालन-पालन हुआ।

पन्तजी की उच्चशिक्षा का पहला चरण अल्मोड़ा में पूरा हुआ। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गुसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रख लिया।

सन् 1919 ई॰ में पन्तजी अपने मॅंझले भाई के साथ बनारस चले आए। यहाॅं पर इन्होंने 'क्वींस कॉलेज' में शिक्षा प्राप्त की। यहीं से इनका वास्तविक कविकर्म प्रारम्भ हुआ। काशी में पन्तजी का परिचय सरोजिनी नायडू तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य के साथ-साथ अंग्रेजी की रोमाण्टिक कविता से हुआ और यहीं पर इन्होंने कविता- प्रतियोगिता में भाग लेकर प्रशंसा प्राप्त की। 'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित होने पर, इनकी रचनाओं ने काव्य-मर्मज्ञों के हृदय में अपनी धाक जमा ली।

सन् 1950 ई॰ में ये 'ऑल इण्डिया रेडियो' के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और सन् 1957 ई॰ तक ये प्रत्यक्ष रूप से रेडियो से सम्बद्ध रहे।

इन्हें 'कला और बूढ़ा चाॅंद' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, 'लोकायतन' पर सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार और 'चिदम्बरा' पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने पन्तजी को 'पद्मभूषण' की उपाधि से भी विभूषित किया। 28 दिसम्बर, सन् 1977 ई॰ को इनका स्वर्गवास हो गया।

सुमित्रानन्दन पन्त छायावादी युग के महान् कवियों में से एक थे। 7 वर्ष की अल्पायु से ही इन्होंने कविताऍं लिखनी प्रारम्भ कर दी थीं। सन् 1916 ई॰ में इन्होंने 'गिरजे का घण्टा' नामक सर्वप्रथम रचना लिखी। इलाहाबाद के 'म्योर कॉलेज' में प्रवेश लेने के उपरान्त इनकी साहित्यिक रुचि और भी अधिक विकसित हो गई। सन् 1920 ई॰ में इनकी रचनाऍं 'उच्छ्वास' और 'ग्रन्थि' में प्रकाशित हुईं। इसके उपरान्त सन् 1927 ई॰ में इनके 'वीणा' और 'पल्लव' नामक दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। इन्होंने 'रुपाभा' नामक एक प्रगतिशील विचारोंवाले पत्र का सम्पादन भी किया। सन् 1942 ई॰ में इनका सम्पर्क महर्षि अरविन्द घोष से हुआ। ये महर्षि से बहुत अधिक प्रभावित हुए और उनके दर्शन को इन्होंने अपने काव्य के माध्यम से मुखरित किया।

पन्तजी सौन्दर्य के उपासक थे। प्रकृति, नारी और कलात्मक सौन्दर्य इनकी सौन्दर्यानुभूति के तीन मुख्य केन्द्र रहे। इनके काव्य-जीवन का आरम्भ प्रकृति-चित्रण से हुआ। इनके प्रकृति एवं मानवीय भावों के चित्रण में कल्पना एवं भावों की सुकुमार कोमलता के दर्शन होते हैं। इसी कारण इन्हें प्रकृति का सुकुमार एवं कोमल भावनाओं से युक्त कवि कहा जाता है।

पन्तजी बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। इन्होंने अपने दीर्घकालीन साहित्यिक जीवन में विविध विधाओं में साहित्य-सर्जना की।

इनकी प्रमुख कृतियों का विवरण इस प्रकार है-

  1. लोकायतन- इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा व्यक्त हुई है। इसमें कवि ने ग्राम्य जीवन और जन-भावना को भी छन्दोबद्ध किया है।
  2. वीणा- इसमें पन्तजी के प्रारम्भिक गीत संगृहीत हैं तथा इसमें प्रकृति के अपूर्व सौन्दर्य को प्रदर्शित करनेवाले दृश्यों का चित्रण भी हुआ है।
  3. पल्लव- इस काव्य-संग्रह की रचनाओं ने पन्तजी को छायावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस संग्रह में प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य पर आधारित व्यापक चित्र प्रस्तुत किए गए हैं।
  4. गुंजन- इसमें प्रकृति-प्रेम और सौन्दर्य से सम्बन्धित, कवि की गम्भीर व प्रौढ़ रचनाऍं संकलित हुई हैं।
  5. ग्रन्थि- इस काव्य-संग्रह में मुख्य रूप से वियोग का स्वर मुखरित हुआ है। प्रकृति यहाॅं भी कवि की सहचरी है।
  6. अन्य कृतियाॅं- 'स्वर्णधूलि', 'स्वर्णकिरण', 'युगपथ', 'उत्तरा' तथा 'अतिमा' में पन्तजी महर्षि अरविन्द के नवचेतनावाद से प्रभावित हैं। 'युगान्त', 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में पन्तजी समाजवाद और भौतिक दर्शन की ओर उन्मुख हुए हैं। इन रचनाओं में कवि ने दीन-हीन और शोषित वर्ग को अपने काव्य का आधार बनाया है। 'कला और बूढ़ा चाॅंद', 'चिदम्बरा', 'शिल्पी' आदि रचनाऍं भी पन्तजी की महत्त्वपूर्ण कृतियाॅं हैं।

पन्तजी की शैली अत्यन्त सरस एवं मधुर है। बाॅंग्ला तथा अंग्रेजी भाषा से प्रभावित होने के कारण इन्होंने गीतात्मक शैली अपनाई। सरलता, मधुरता, चित्रात्मकता, कोमलता और संगीतात्मकता इनकी शैली की प्रमुख विशेषताऍं हैं।

कोमल अनुभूतियों के संवेदनशील चितेरे पन्तजी, अपनी सुकुमार अभिव्यक्तियों के लिए सदैव याद किए जाते रहेंगे।

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