Jaishankar Prasad Ka Jivan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1890 ई॰ से सन् 1937 ई॰)

जयशंकरप्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और निबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में इनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। निरन्तर दुःख और चिन्ताओं से जूझते हुए ये इस संसार से विदा हो गए, परन्तु इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी-साहित्य-जगत् को सदैव के लिए आलोकित कर दिया। सुविख्यात साहित्यकार रमेशचन्द्र शाह ने जयशंकरप्रसाद के सम्बन्ध में लिखा है, "प्रसाद का दर्शन भारतीय इतिहास प्रवाह में अर्जित, गॅंवाई गई और फिर से प्राप्त नैतिक व सौन्दर्यात्मक तथा व्यावहारिक व रहस्यात्मक अन्तर्दृष्टियों का समन्वय करने का साहित्यिक प्रयास है। उनका सम्पूर्ण कथा-साहित्य एवं नाट्यसाहित्य गहरे मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद की नींव पर खड़ा है।"

जीवन परिचय- प्रसादजी का जन्म काशी के 'सुॅंघनी साहू' नाम के प्रसिद्ध वैश्य परिवार में सन् 1890 ई॰ में हुआ था। प्रसादजी के पितामह का नाम शिवरत्न साहू और पिता का नाम देवीप्रसाद था। प्रसादजी के पितामह शिव के परमभक्त और दयालु थे। इनके पिता भी अत्यधिक उदार और साहित्य-प्रेमी थे।

प्रसादजी का बाल्यकाल सुख के साथ व्यतीत हुआ। इन्होंने बाल्यावस्था में ही अपनी माता के साथ धाराक्षेत्र, ओंकारेश्वर, पुष्कर, उज्जैन और ब्रज आदि तीर्थों की यात्रा की। अमरकण्टक पर्वत-श्रेणियों के बीच, नर्मदा में नाव के द्वारा भी इन्होंने यात्रा की। यात्रा से लौटने के पश्चात् प्रसादजी के पिता का स्वर्गवास हो गया। पिता की मृत्यु के 4 वर्ष पश्चात् इनकी माता भी उन्हें संसार में अकेला छोड़कर चल बसीं।

प्रसादजी के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध उनके बड़े भाई शम्भूरत्नजी ने किया। सर्वप्रथम प्रसादजी का नाम 'क्वींस कॉलेज' में लिखवाया गया, लेकिन स्कूल की पढ़ाई में इनका मन न लगा; इसलिए इनकी शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही किया गया। घर पर ही प्रसादजी योग्य शिक्षकों से अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन करने लगे। प्रसादजी को प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति अनुराग था। ये प्रायः साहित्यिक पुस्तकें पढ़ा करते थे और अवसर मिलने पर कविता भी किया करते थे। पहले तो इनके भाई इनकी काव्य-रचना में बाधा डालते रहे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि प्रसादजी का मन काव्य-रचना में अधिक लगता है, तब उन्होंने इसकी पूरी स्वतन्त्रता दे दी। प्रसादजी स्वतन्त्र रूप से काव्य-रचना के मार्ग पर बढ़ने लगे। इन्हीं दिनों इनके बड़े भाई शम्भूरत्नजी का भी स्वर्गवास हो गया। इससे प्रसादजी के हृदय को बहुत गहरा आघात लगा। इनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई तथा व्यापार भी समाप्त हो गया। पिताजी के समय से ही इन पर ऋण-भार चला आ रहा था। ऋण से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने अपनी सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति बेच दी। ऋण के भार से इन्हें मुक्ति तो मिल गई, परन्तु इनका जीवन संघर्षों और झंझावातों में ही चक्कर खाता रहा।

यद्यपि प्रसादजी बड़े संयमी थे, किन्तु संघर्ष और चिन्ताओं के कारण इनका स्वास्थ्य खराब हो गया। इन्हें यक्ष्मा रोग ने धर-दबोचा। इस रोग से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की, किन्तु 15 नवम्बर सन् 1937 ई॰ को इनका स्वर्गवास हो गया।

प्रसादजी में साहित्य-सृजन की प्रतिभा जन्मजात विद्यमान थी। अपने अल्प जीवनकाल में इन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि है। नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध और काव्य के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण साहित्यिक योग्यता का परिचय दिया। 'कामायनी' जैसे विश्व-स्तरीय महाकाव्य की रचना करके प्रसादजी ने हिन्दी-साहित्य को अमर कर दिया। इन्होंने काव्य, साहित्य, कला आदि विषयों पर अनेक महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखे तथा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी कई अद्वितीय रचनाओं का सृजन किया। इनकी रचनाओं में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारधाराओं की तुलनात्मक समीक्षा और आदर्श व यथार्थ का अनुपम समन्वय देखने को मिलता है। प्रसादजी ने अपनी रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग अधिक किया। नाटक के क्षेत्र में इनके अभिनव योगदान के फलस्वरूप नाटक विधा में 'प्रसाद युग' का सूत्रपात हुआ। विषयवस्तु एवं शिल्प की दृष्टि से इन्होंने नाटकों को नवीन दिशा दी। भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय भावना, भारत के अतीतकालीन गौरव आदि पर आधारित 'चन्द्रगुप्त', 'स्कन्दगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' जैसे प्रसाद-रचित नाटक विश्वस्तरीय साहित्य में अपना बेजोड़ स्थान रखते हैं। काव्य के क्षेत्र में इन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय देते हुए हिन्दी-काव्य को नए आयाम दिए। ये छायावादी काव्यधारा के प्रवर्त्तक कवि थे।

प्रसादजी हिन्दी-साहित्य के स्वनामधन्य रत्न हैं। इन्होंने काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक सभी विधाओं में हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया।

इनकी प्रमुख कृतियाॅं निम्नलिखित हैं-

  1. काव्य- ऑंसू, कामायनी, चित्राधार, लहर और झरना।
  2. कहानी- ऑंधी, इन्द्रजाल, छाया, प्रतिध्वनि आदि।
  3. उपन्यास- तितली, कंकाल, इरावती।
  4. नाटक- सज्जन, कल्याणी-परिणय, चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, प्रायश्चित्त, जनमेजय का नागयज्ञ, विशाख, ध्रुवस्वामिनी।
  5. निबन्ध- काव्यकला एवं अन्य निबन्ध।

भाषा-शैली

जिस प्रकार प्रसादजी के साहित्य में विविधता है, उसी प्रकार उनकी भाषा ने भी कई स्वरूप धारण किए हैं।उनकी भाषा का स्वरूप विषयों के अनुसार ही गठित हुआ है।

प्रसादजी ने अपनी भाषा का श्रृंगार संस्कृत के तत्सम शब्दों से किया है। भावमयता उनकी भाषा की प्रधान विशेषता है। भावों और विचारों के अनुकूल शब्द उनकी भाषा में सहज रूप से आ गए हैं।

प्रसादजी की भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग नहीं के बराबर हैं। विदेशी शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा में नहीं मिलता।

प्रसादजी की रचना-शैली को हम पाॅंच रूपों में विभक्त कर सकते हैं-

  1. विचारात्मक शैली- इस शैली का विकास प्रसादजी के निबन्धों में हुआ है। यह शैली अत्यधिक गम्भीर और चिन्तनमयी है। विचारों की गहनता के कारण कहीं-कहीं इस शैली में अस्पष्टता भी आ गई है।
  2. अनुसन्धानात्मक शैली- यह शैली प्रसादजी के उन निबन्धों में मिलती है, जो गवेषणात्मक विषयों पर लिखे गए हैं। यह शैली भी अधिक गम्भीर और विचारपूर्ण है तथा इसमें वह दुरूहता नहीं है, जो विचारात्मक शैली में मिलती है।
  3. इतिवृत्तात्मक शैली- इस शैली के दर्शन प्रसादजी के उपन्यासों में मिलते हैं। यह शैली अधिक सरल और स्पष्ट है। इस शैली में प्रायः व्यावहारिक भाषा का प्रयोग हुआ है।
  4. चित्रात्मक शैली- इस शैली का विकास उन स्थानों पर हुआ है, जहाॅं प्रसादजी ने भावों के द्वन्द्वात्मक चित्रों का अंकन किया है। रेखाचित्रों और प्रकृति-चित्रों में भी यह शैली मिलती है।
  5. भावात्मक शैली- यह प्रसादजी की प्रमुख शैली है। इस शैली के दर्शन उनकी सभी रचनाओं में मिलते हैं। यह शैली अधिक सरस और मधुर है। इसमें स्थान-स्थान पर काव्यात्मक शब्दों और कल्पनाओं के आकर्षक चित्र मिलते हैं।

बाॅंग्ला-साहित्य में जो स्थान रवीन्द्रनाथ ठाकुर का और रूसी-साहित्य में जो स्थान तुर्गनेव का है, हिन्दी-साहित्य में वही स्थान प्रसादजी का है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर और तुर्गनेव की भाॅंति प्रसादजी ने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। प्रसादजी कवि भी थे और नाटककार भी, उपन्यासकार भी थे और कहानीकार भी। इसमें सन्देह नहीं कि जब तक हिन्दी-साहित्य का अस्तित्व रहेगा, प्रसादजी के नाम को विस्मृत किया जाना सम्भव नहीं हो सकेगा।

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