Ramdhari Singh Dinkar Ka Jivan Parichay
सुप्रसिद्ध कवि दिनकरजी हिन्दी के समर्थ राष्ट्रीय कवि, मनीषी, विचारक, सुधी समीक्षक और श्रेष्ठ निबन्धकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेकर भी इन्होंने असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया।इनके द्वारा अनेक ऐसे ग्रन्थों की रचना हुई, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। डॉ॰ राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी ने दिनकरजी के सन्दर्भ में लिखा है- "दिनकरजी युग प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। उनकी भाषा में ओज और भावों में क्रान्ति की ज्वाला है। उनकी प्रत्येक पंक्ति में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का उद्वेलन है। उनमें जन-जीवन के जागरण का स्वर है।"
जीवन परिचय- रामधारीसिंह 'दिनकर' का जन्म सन् 1908 ई॰ में बिहार के मुंगेर जिले के अन्तर्गत सिमरिया-घाट नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने मोकामा-घाट से मैट्रिक तथा 'पटना विश्वविद्यालय' से बी॰ ए॰ (ऑनर्स) किया। बाल्यावस्था में ही इन्होंने अपनी साहित्य-सृजन की प्रतिभा का परिचय दे दिया था। जब ये मिडिल कक्षा में पढ़ते थे, तभी इन्होंने 'वीरबाला' नामक काव्य लिख लिया था। मैट्रिक में पढ़ते समय ही इनका 'प्राणभंग' काव्य प्रकाशित हो गया था। सन् 1928-29 ई॰ में इन्होंने विधिवत् साहित्य-सृजन के क्षेत्र में पदार्पण किया।
बी॰ ए॰ (ऑनर्स) करने के बाद दिनकरजी 1 वर्ष तक मोकामा-घाट के हाईस्कूल में प्रधानाचार्य रहे। सन् 1934 ई॰ में ये सरकारी नौकरी में आए तथा सन् 1934 ई॰ में ही ब्रिटिश सरकार के युद्ध-प्रचार विभाग में उपनिदेशक नियुक्त किए गए। कुछ समय बाद ये 'मुजफ्फरपुर कॉलेज' में हिन्दी-विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। सन् 1952 ई॰ में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया, जहाॅं ये सन् 1962 ई॰ तक रहे। सन् 1963 ई॰ में ये 'भागलपुर विश्वविद्यालय' के कुलपति नियुक्त किए गए। दिनकरजी ने भारत सरकार की हिन्दी-समिति के सलाहकार और आकाशवाणी के निदेशक के रूप में भी कार्य किया।
दिनकरजी की साहित्यिक प्रतिभा को सम्मान देने हेतु भारत के राष्ट्रपति ने सन् 1959 ई॰ में इनको 'पद्म-भूषण' की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार भी मिला। एक लाख रुपये के 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से भी इनको पुरस्कृत किया गया। हिन्दी के इस महान् साहित्यकार का सन् 1974 ई॰ में स्वर्गवास हो गया।
रामधारीसिंह 'दिनकर' ने एक कवि के रूप में अपेक्षाकृत अधिक ख्याति प्राप्त की, परन्तु फिर भी इनका गद्य की विभिन्न विधाओं पर समान अधिकार था। गद्य के क्षेत्र में भी इन्होंने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। एक श्रेष्ठ निबन्धकार, आलोचक एवं विचारक के रूप में ये हिन्दी-साहित्य-जगत् में विख्यात हैं। इनका अध्ययन अत्यन्त गहन एवं व्यापक था। साहित्य, दर्शन, राजनीति और इतिहास में इनकी विशेष रुचि थी। दिनकरजी की विभिन्न रचनाओं में इन विषयों से सम्बन्धित इनका गहन चिन्तन अभिव्यंजित हुआ है।
गद्य के क्षेत्र में इन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित प्रचुर साहित्य की रचना की। इन्हें अपने देश एवं संस्कृति से प्रबल अनुराग था। 'संस्कृति के चार अध्याय' एवं 'भारतीय संस्कृति की एकता' इनकी राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित सर्वश्रेष्ठ कृतियाॅं हैं। आलोचना सम्बन्धी साहित्य में भी दिनकरजी ने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इनके आलोचनात्मक ग्रन्थों में भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा-सिद्धान्तों का सुन्दर ढंग से विवेचन हुआ है। एक काव्यकार के रूप में ये भारतीय साहित्य के इतिहास में सदैव के लिए अमर हो गए हैं। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित हृदयस्पर्शी कविताऍं लिखने के कारण ये राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए। भारत के अतीतकालीन गौरव और भारतीयों की वर्तमान दशा का चित्रण करके इन्होंने देश के जन-मानस को झकझोर कर रख दिया।
रामधारीसिंह दिनकर जी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिन्दी साहित्य को उच्च कोटि की रचनाऍं दी हैं।
इनकी प्रमुख रचनाऍं निम्नलिखित हैं-
- निबन्ध-संग्रह- मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, रेती के फूल, उजली आग।
- संस्कृति-ग्रन्थ- संस्कृति के चार अध्याय, भारतीय संस्कृति की एकता।
- आलोचना-ग्रन्थ- शुद्ध कविता की खोज।
- काव्य-ग्रन्थ- रेणुका, हुॅंकार, सामधेनी, रूपवन्ती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा।
भाषा-शैली
रामधारीसिंह दिनकर जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है, जिसके दो रूप हैं-
'संस्कृति के चार अध्याय' जैसी गम्भीर विवेचनात्मक रचनाओं में दिनकरजी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। यह भाषा अत्यन्त प्रांजल और प्रौढ़ है, किन्तु इसमें भी सुबोधता और स्पष्टता सर्वत्र विद्यमान है। इनकी भाषा का दूसरा रूप उर्दू-फारसी के शब्दों से युक्त है। कहीं-कहीं अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों और उर्दू-फारसी की शब्दावली का सम्मिलित प्रयोग बड़ा ही मोहक लगता है।
रामधारीसिंह दिनकर जी की भाषा में तद्भव और देशज शब्दों तथा मुहावरों और लोकोक्तियों के भी सहज-स्वाभाविक प्रयोग हुए हैं। इनकी भाषा वस्तुतः सहज, स्वाभाविक और व्यावहारिक भाषा है। इसमें प्रवाह, ओज, सुबोधता एवं स्पष्टता है, परन्तु कहीं-कहीं इनके वाक्य-विन्यास में शिथिलता के भी दर्शन हो जाते हैं।
भाषा की भाॅंति दिनकरजी की शैली भी व्यावहारिक ही है। वह विषयानुरूप बदलती रही है।
इनकी रचनाओं में शैली के प्रायः निम्नलिखित रूप मिलते हैं-
- विवेचनात्मक शैली- दिनकरजी ने शैली का यह रूप गहन-गम्भीर विषयों के विवेचन के समय अपनाया है। इनके विचारप्रधान निबन्धों में तथा 'संस्कृति के चार अध्याय' में यही शैली दृष्टिगोचर होती है। इसकी भाषा परिष्कृत, किन्तु सुबोध है।
- समीक्षात्मक शैली- इस शैली का प्रयोग समीक्षात्मक कृतियों में हुआ है। 'शुद्ध कविता की खोज' और 'मिट्टी की ओर' संग्रह के समीक्षात्मक निबन्धों में इसके दर्शन होते हैं। इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है, किन्तु क्लिष्ट नहीं है। गाम्भीर्य इस शैली की मुख्य विशेषता है।
- भावात्मक शैली- दिनकरजी महान् कवि थे। गद्य-रचनाओं में भी कहीं-कहीं इनका भावुक कवि-हृदय मुखर हो उठा है। ऐसे स्थलों पर इनकी शैली भावात्मक हो गई है। इस शैली में काव्यात्मक सरसता, आलंकारिकता, सौष्ठव और भाषागत लालित्य देखते ही बनता है।
- सूक्तिपरक शैली- दिनकरजी में जीवन के शाश्वत सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार करने और उन्हें कलात्मक अभिव्यक्ति देने की अद्भुत शक्ति थी। इसलिए वे अपनी गद्य-रचनाओं के बीच-बीच में सूक्ति-शैली में भी बात कहते चलते हैं। इन सूक्तियों में दिनकरजी का गहन चिन्तन और जीवन का व्यापक अनुभव दृष्टिगोचर होता है।
इन शैलियों के अतिरिक्त दिनकरजी की रचनाओं में आत्मकथात्मक शैली (आत्मपरक निबन्धों में), वार्त्तालाप शैली, उद्धरण शैली, उद्बोधन शैली आदि के दर्शन भी यत्र-तत्र हो जाते हैं।
रामधारीसिंह दिनकर जी समर्थ कवि ही नहीं, उत्कृष्ट गद्यकार भी थे। 'संस्कृति के चार अध्याय' और 'शुद्ध कविता की खोज' जैसी उच्चकोटि की गद्य-कृतियाॅं इन्हें महान् चिन्तक और मनीषी गद्य-लेखक की कोटि में प्रतिष्ठित करती हैं। सरस्वती के इस अमर साधक ने अपने देश के प्रति असीम राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित इनका साहित्य भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इनकी गणना विश्व के महान् साहित्यकारों में होती है।
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