Bharatendu Harishchandra Ka Jivan Parichay

(जीवनकाल सन् 1850 ई॰ से सन् 1885 ई॰)

जीवन परिचय- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक माने जाते हैं। भारतेन्दु जी का जन्म सन् 1850 ई॰ में काशी में हुआ था। आपके पिता बाबू गोपालचन्द्र 'गिरधरदास' के उपनाम से कविता करते थे। पुत्र पिता से एक कदम आगे ही रहता है, इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए भारतेन्दु जी ने 5 वर्ष की अल्पायु में ही काव्य-रचना कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। बाल्यावस्था में ही माता-पिता की छत्रछाया सिर से उठ जाने के कारण आपको उनकी वात्सल्यमयी छाया से वंचित रहना पड़ा; अतः आपकी शिक्षा सुचारु रूप से न चल सकी। घर पर ही स्वाध्याय से ही आपने हिन्दी, ॲंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं का गहन ज्ञान प्राप्त किया। 13 वर्ष की अल्पायु में आपका विवाह मन्नोदेवी के साथ हुआ।

भारतेन्दु जी की रुचि साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यों में बहुत थी। साहित्य और समाज की सेवा में आप तन-मन-धन से समर्पित थे। फलस्वरूप आपके ऊपर बहुत ऋण चढ़ गया। ऋण की चिन्ता से आपका शरीर क्षीण हो गया और सन् 1885 ई॰ में 35 वर्ष की अल्पायु में ही इनका स्वर्गवास हो गया।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एक प्रतिभासम्पन्न और अत्यन्त संवेदनशील व्यक्ति थे। ये कवि, नाटककार, निबन्ध-लेखक, सम्पादक, समाज-सुधारक सभी थे। आपने ब्रिटिशकाल में उपेक्षित हिन्दी भाषा को नवीन सामर्थ्य प्रदान की तथा हिन्दी साहित्य को नयी दिशा देकर अति समृद्ध बनाया। आपने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। सन् 1868 ई॰ में 'कवि वचन सुधा' और सन् 1873 ई॰ में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' का सम्पादन किया। नाटकों के क्षेत्र में आपकी देन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। आपके वर्ण्य-विषय थे- भक्ति श्रृंगार, समाज-सुधार, देश-प्रेम, राष्ट्रीय चेतना, नाटक और रंगमंच का परिष्कार, साहित्यालोचन, इतिहास आदि। आपने जीवनी और यात्रा-वृत्तान्त भी लिखे हैं। तत्कालीन सामाजिक रूढ़ियों को दृष्टि में रखकर लिखे गए आपके हास्य और व्यंग्य परक लेख बडे़ सुन्दर बन पड़े हैं।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी की प्रमुख रचनाऍं निम्नलिखित हैं-

  1. कविता संग्रह- 'भक्त-सर्वस्व', 'प्रेम-सरोवर', 'प्रेमतरंग', 'सतसई-श्रृंगार', 'भारत-वीणा', 'प्रेम प्रलाप', 'प्रेम फुलवारी', 'वैजयन्ती' आदि।
  2. नाटक- 'विद्या सुन्दर', 'रत्नावली', 'पाखण्ड विडम्बन', 'धनंजय विजय', 'कर्पूर मंजरी', 'मुद्राराक्षस', 'भारत जननी', 'दुर्लभ बंधु', 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति', 'सत्य हरिश्चन्द्र', 'श्री चन्द्रावली', 'विषस्य विषमौषधम्', 'भारत-दुर्दशा', 'नीलदेवी', 'अंधेर नगरी', 'सती प्रताप', 'प्रेम जोगनी', आदि।
  3. कथा साहित्य- 'मदालसोपाख्यान्', 'शीलमती', 'हमीर हठ', 'सुलोचना', 'लीलावती', 'सावित्री-चरित्र', 'कुछ आप बीती कुछ जग बीती' आदि।
  4. निबन्ध- 'हम मूर्ति पूजक हैं', 'स्वर्ग में विचार-सभा', 'बंग भाषा की कविता', 'पाॅंचवें पैगम्बर', 'मेला-झमेला', 'स्त्रीदण्ड संग्रह', आदि।
  5. आलोचना- सूर, जयदेव आदि।
  6. इतिहास- 'दिल्ली दरबार-दर्पण', 'कश्मीर कुसुम', 'महाराष्ट्र देश का इतिहास' आदि।
  7. पत्र-पत्रिकाऍं- 'हरिश्चन्द्र मैगजीन', 'कवि वचन सुधा', आदि।

भारतेन्दु जी ने अनेक विधाओं में साहित्य सृजन करके और हिन्दी साहित्य को शताधिक रचनाऍं समर्पित कर समृद्ध बनाया।

भाषा-शैली

काव्य-सर्जना में भारतेन्दु जी ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया तथा गद्य में आपने खड़ी बोली को अपनाया। आपने खड़ी बोली को व्यवस्थित, परिष्कृत और परिमार्जित रूप प्रदान किया। आवश्यकतानुसार आपने अरबी, फारसी, उर्दू, ॲंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया। भाषा में प्रवाह तथा ओज लाने हेतु आपने लोकोक्तियों तथा मुहावरों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया। भारतेन्दु जी की भाषा सरल, सुबोध, प्रवाहमयी, व्यावहारिक और जीवन्त है। भारतेन्दु भाषा के धनी एवं निर्माता थे।

भारतेन्दु जी की रचनाओं में शैली के विविध प्रकार देखने को मिलते हैं। आप विषय के अनुरूप, अपनी शैली के स्वयं निर्माता थे।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी की शैलियाॅं इस प्रकार है-

  1. वर्णनात्मक शैली- किसी वस्तु का वर्णन करते एवं परिचय देते समय आपने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है।
  2. भावात्मक शैली- भावों के वेग और तीव्रता को प्रकट करते समय आपकी शैली भावात्मक हो जाती है।
  3. विचारात्मक शैली- विचारात्मक शैली का प्रयोग अधिकतर साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय निबन्धों में पाया जाता है।
  4. व्यंग्यात्मक शैली- भारतेन्दु जी ने अन्धविश्वासों और सामाजिक कुरीतियों पर तीखे व्यंग्य करते समय इस शैली को अपनाया है।

भारतेन्दु जी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के धनी थे। उनका काल हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु युग के नाम से विख्यात है। हिन्दी गद्य के जन्म एवं विकास की दृष्टि से उनका साहित्य में अद्वितीय स्थान है।

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