Maithili Sharan Gupt Ka Jeevan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1886 ई॰ सन् 1964 ई॰)

जीवन परिचय- मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाॅंसी जिले के चिरगाॅंव में सन् 1886 ई॰ में हुआ था। इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त परम वैष्णव एवं काव्यरसिक थे। काव्य-रचना की ओर बाल्यावस्था से ही गुप्त जी का झुकाव था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से इन्होंने हिन्दी काव्य की नवीन धारा को पुष्ट कर उसमें अपना विशेष स्थान बना लिया था। इनकी कविता में देश-भक्ति एवं राष्ट्र-प्रेम की व्यंजना प्रमुख होने के कारण इन्हें हिन्दी-संसार ने 'राष्ट्र-कवि' का सम्मान दिया। महात्मा गांधी से प्रभावित होकर आप स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़े तथा परिणामतः आपको जेल यात्राऍं भी करनी पड़ीं। आपकी साहित्यिक सेवाओं के कारण आगरा एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा आपको डी-लिट्॰ की उपाधि से विभूषित किया गया। 'साकेत' महाकाव्य पर आपको मंगलाप्रसाद पारितोषिक भी प्राप्त हुआ। राष्ट्रपति ने इन्हें संसद-सदस्य मनोनीत किया। 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई॰ में इनका स्वर्गवास हो गया।
कृतित्व एवं व्यक्तित्व- गुप्त जी की रचना-सम्पदा विशाल है। इनकी विशेष ख्याति रामचरित पर आधारित महाकाव्य 'साकेत' के कारण है।

'जयद्रथ-वध', 'भारत-भारती', 'अनघ', 'पंचवटी', 'जयभारत', 'झंकार', 'त्रिपथगा कुणाल', 'गीत', 'नहुष', 'काबा और कर्बला', 'वीरांगना', 'मेघनाद-वध' तथा 'वासवदत्ता' अनूदित रचनाऍं हैं। 'यशोधरा', 'द्वापर', 'सिद्धराज', 'विश्ववेदना', 'विष्णु-प्रिया', 'चन्द्रहास', 'तिलोत्तमा' आदि गुप्त जी की अन्य प्रसिद्ध काव्य-कृतियाॅं हैं।

साहित्यिक योगदान

मैथिलीशरण गुप्त जी आधुनिक युग के श्रेष्ठ कवियों में हैं। इनकी प्रारम्भिक रचनाओं में इतिवृत्त कथन का रूखापन है। पद्य में कही गयी इन कहानियों में भावात्मक सरसता का अभाव है। 'भारत-भारती' आदि प्रारम्भिक रचनाऍं ऐसी ही हैं। छायावाद के आगमन के साथ, गुप्त जी की कविता में भी लाक्षणिक में वैचित्रय और मनोभावों की सूक्ष्मता का मार्मिकता आयी। गुप्त जी का झुकाव भी गीति-काव्य की ओर हुआ। प्रबन्ध के भीतर ही गीति-काव्य का समावेश करके गुप्त जी ने भाव-सौन्दर्य के मार्मिक स्थलों से परिपूर्ण 'यशोधरा' और 'साकेत' जैसी उत्कृष्ट काव्य-कृतियों का सृजन किया। गुप्त जी के काव्य की यह प्रधान विशेषता है कि गीति-काव्य के तत्वों को अपनाने के कारण उसमें सरसता आयी है, पर प्रबन्ध की धारा की भी उपेक्षा नहीं हुई। गुप्त जी के कवित्व के विकास के साथ इनकी भाषा का बहुत परिमार्जन हुआ। उसमें धीरे-धीरे लाक्षणिकता, संगीत और लय के तत्वों का प्राधान्य हो गया।

  1. राष्ट्र-प्रेम- राष्ट्र-प्रेम गुप्त जी की कविता का प्रमुख स्वर है। 'भारत-भारती' में प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रेरणाप्रद चित्रण हुआ है। इस रचना में व्यक्त स्वदेश-प्रेम ही इनकी परवर्ती रचनाओं में राष्ट्र-प्रेम और नवीन राष्ट्रीय भावनाओं में परिणत हो गया। इनकी कविता से आज की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट-दर्शन होते हैं। गाॅंधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्यसमाज का भाव भी उन पर पड़ा है। अपने काव्यों की कथावस्तु गुप्त जी से आज के जीवन में न लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराण से ली है। ये अतीत की गौरव गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिये मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपनाते हैं।
  2. चित्रांकन- मैथिलीशरण गुप्त जी की चरित्र कल्पना में कहीं भी अलौकिकता के लिये स्थान नहीं है। इनके सारे चरित्र मानव हैं, उनमें देव और दानव नहीं हैं। इनके राम, कृष्ण, गौतम आदि सभी प्राचीन और चिरकाल से हमारी श्रद्धा प्राप्त किये हुए पात्र हैं। इसीलिए वे जीवन-प्रेरणा और स्फूर्ति प्रदान करते हैं। "साकेत" के राम 'ईश्वर' होते हुए भी तुलसी की भाॅंति 'आराध्य' नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं।
  3. नारी-वर्णन- नारी के प्रति मैथिलीशरण गुप्त जी का हृदय सहानुभूति और करुणा से आप्लावित है। 'यशोधरा', 'उर्मिला', 'कैकेयी', 'विधृता', 'रानकदे' आदि नारियाॅं गुप्त जी की महत्त्वपूर्ण सृष्टि हैं। भारतीय नारी जीवन की विडम्बना उन्होंने इस प्रकार व्यक्त की है-

"अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी।

ऑंचल में है दूध और ऑंखों में पानी।।"

संस्कृति चित्रण- गुप्त जी भारतीय संस्कृति के अमर गायक हैं। भारत भारती आपके राष्ट्रप्रेम का अद्वितीय उदाहरण है-

"जिसको न निज गौरव तथा निज जाति पर अभिमान है।

वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है।।"

प्रकृति चित्रण- प्रकृति के स्वाभाविक चित्रण में गुप्त जी सिद्धहस्त हैं, उनका आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण प्रसिद्ध है।

"चारु चन्द्र की चंचल किरणें,खेल रही हैं जल थल में।

स्वच्छ चाॅंदनी बिछी हुई है,अवनि और अम्बर तल में।।"

मैथिलीशरण गुप्त जी की भाव-व्यंजना में सर्वत्र ही जीवन की गम्भीर अनुभूति के दर्शन होते हैं। इन्होंने कल्पना का आश्रय तो लिया है, पर इनके भाव कहीं भी मानव की स्वाभाविकता का अतिक्रमण नहीं करते। इनके काव्य में सीधी और सरल भाषा में इतनी सुन्दर, भाव व्यंजना ले जाने का एकमात्र कारण जीवन की गम्भीर अनुभूति ही है।

  1. भाषा- गुप्त जी खड़ी बोली को हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने वाले समर्थ कवि के रूप में विशेष महत्त्व रखते हैं। सरल, शुद्ध, परिष्कृत खड़ी बोली में कविता करके इन्होंने ब्रजभाषा के स्थान पर उसे समर्थ काव्य-भाषा सिद्ध कर दिखाया। स्थान-स्थान पर लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोगों से इनकी काव्य-भाषा और भी जीवन्त हो उठी है। प्राचीन एवं नवीन सभी प्रकार के अलंकारों का गुप्त जी के काव्य में भाव-सौन्दर्यवर्द्धक स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। सभी प्रकार के प्रचलित छन्दों में इन्होंने काव्य-रचना की है।
  2. अलंकार एवं छन्द योजना- गुप्त जी की कविता में अलंकारों का सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष आदि प्रचलित अलंकारों के साथ नाद-सौन्दर्य एवं मानवीकरण जैसे अलंकारों को अपनाया है। आपने सभी प्रचलित छन्दों का प्रयोग किया है।

मैथिलीशरण गुप्त जी युगीन चेतना और इसके विकसित होते हुए रूप के प्रति सजग थे। इसकी स्पष्ट झलक इनके काव्य में मिलती है। राष्ट्र की आत्मा को वाणी देने के कारण ये राष्ट्र कवि कहलाए और आधुनिक हिन्दी काव्य की धारा के साथ विकास-पथ पर चलते हुए युग-प्रतिनिधि कवि स्वीकार किये गये।

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