नागार्जुन का जीवन परिचय - Nagarjun Biography in Hindi
(जीवनकाल सन् 1911 ई० से सन् 1998 ई०)
जीवन परिचय- प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रतीक पुरुष बाबा नागार्जुन का जन्म मिथिलांचल के तरौनी नामक ग्राम में 30 जून, सन् 1911 ई० (डॉ० नगेन्द्र के 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' के पृष्ठ 626 के अनुसार 1910 ई०) को हुआ था। इनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था, किन्तु ये 'यात्री' और 'नागार्जुन' के उपनाम से ही विख्यात हैं। घर की दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण इनकी शिक्षा-दीक्षा समुचित रूप से नहीं हो सकी। गाॅंव की संस्कृत पाठशाला में इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। बचपन के अभावग्रस्त समय ने इनके मन-मस्तिष्क में शोषित-पीड़ित जनता के प्रति अगाध स्नेह भर दिया। आप प्रगतिशील व्यक्तित्व के धनी थे। अपने 'यात्री' उपनाम के अनुरूप आपने घुमक्कड़ी का व्रत ले लिया और यह आजीवन आपके जीवन का अंग बना रहा। आपने कभी कलकत्ता (अब कोलकाता), कभी दिल्ली, कभी पटियाला, कभी लाहौर और कभी फिरोजपुर आदि स्थानों पर यायावरी जीवन बिताया। आप सन् 1936 ई० में श्रीलंका गये और बौद्धधर्म की दीक्षा लेकर सन् 1938 ई० में स्वदेश लौट आये। उस समय के राजनीतिक क्रिया-कलापों और कटु सत्य भाषा के कारण आपको कारागार की अमानवीय यातनाऍं भी सहनी पड़ीं। आप स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति के थे। इसलिए आपके अनुभव में सच्चाई थी। 5 नवम्बर, सन् 1998 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।
रचनाऍं-
- काव्य-रचनाऍं- 'युगधारा', 'प्यासी पथराई ऑंखें', 'खून और शोले', 'प्रेत का बयान', 'तालाब की मछलियाॅं', 'पुरानी जूतियों का कोरस', 'तुमने कहा था', 'हजार-हजार बाॅंहोंवाली', 'सतरंगे पंखोंवाली', 'खिचड़ी विप्लव देखा हमने', 'भूल जाओ पुराने सपने', 'भस्मांकुर' (खण्डकाव्य) आदि इनकी प्रसिद्ध कृतियाॅं हैं।
- इसके अतिरिक्त गद्य-क्षेत्र में इनके उपन्यास निम्नलिखित हैं-
'बाबा बटेसरनाथ', 'रतिनाथ की चाची', 'कुम्भीपाक', 'उग्रतारा', 'बलचनमा', 'नयी पौध', 'दु:खमोचन', 'वरुण के बेटे', 'पारो', 'जमनिया का बाबा' आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
आपकी रचनाऍं उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सरकार से पुरस्कृत हो चुकी हैं। आप एक सफल सम्पादक भी रहे हैं।
भाषा-शैली-
नागार्जुन भाषा-समर्थ कवि हैं। आपकी भाषा सरल, सरस और हृदयस्पर्शी है। आपने अपनी रचनाओं में समसामयिक स्थितियों-परिस्थितियों, असंगतियों-विसंगतियों, सोच एवं क्रियाओं, अनुभूति और विधाओं को विषयानुरूप सशक्त भाषा में यथातथ्य मुखरित किया है। आपने स्वयं कहा है कि विषय के अनुसार भाषा अपना रूप बदलती है। सामाजिक संघर्ष में भाषा की भूमिका नींव की भाॅंति है। आपकी शैली प्रतीकात्मक, व्यंग्यात्मक एवं प्रभावोत्पादक है।
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