Kabir Das Ka Jivan Parichay
जीवन परिचय- सन्त काव्यधारा अर्थात् भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि सन्त कबीर का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा, सोमवार सन् 1398 ई॰ में माना जाता है-
"चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसाइत को, पूरनमासी प्रगट भए।।"
हालाॅंकि कुछ अन्य विद्वान्; जैसे-श्यामसुन्दर दास, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल आदि 1456 वि. को ही कबीर का जन्म-सम्वत् स्वीकार करते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार, इनका जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था। इनकी माॅं विधवा ब्राह्मणी ने लोक-लाज के भय से इन्हें काशी के लहरतारा नामक स्थान पर एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था, जहाॅं से नीरू नामक एक जुलाहा एवं उसकी पत्नी नीमा निःसन्तान होने के कारण इन्हें उठा लाए। कबीर का कथन है-
'काशी में हम परगट भए, रामानन्द चेताये।'
इससे इनके जन्म स्थान और गुरु का पता चलता है। इनकी पत्नी का नाम लोई था तथा पुत्र कमाल एवं पुत्री कमाली थी। मस्तमौला एवं निर्भीक प्रकृति के कबीर व्यापक देशाटन एवं अनेक साधु-सन्तों के सम्पर्क में आने के कारण बड़े ही सारग्राही एवं प्रतिभाशाली हो गए। अपनी दृढ़ मान्यता (मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है।) को सिद्ध करने के लिए ये अन्त समय में मगहर चले गए। ये लोगों की मान्यता को तोड़ना चाहते थे कि मगहर में मरने वालों को नरक की प्राप्ति होती है। इनकी मृत्यु सन् 1518 ई॰ में हुई-
"सम्वत् पन्द्रह सौ पछत्तरा, कियौ मगहर को गौन।
माघ सुदी एकादशी, रल्यौ पौन में पौन।।"
कबीरदास जी की प्रमुख रचनाऍं इस प्रकार हैं-
कबीर पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है-
'मसि कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ।'
इनके शिष्यों ने इनकी वाणियों का संग्रह 'बीजक' नाम से किया, जिसके तीन भाग हैं- साखी, सबद (पद) एवं रमैनी। कबीर के सबसे प्रामाणिक समीक्षक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना है कि 'बीजक' का सबसे प्रामाणिक अंश 'साखी' है। इसके बाद 'सबद' और अन्त में 'रमैनी' का स्थान है।
- साखी- कबीर की शिक्षा एवं इनके सिद्धान्तों का निरूपण अधिकांशतः 'साखी' में हुआ है, जिसमें 'दोहा' छन्द का प्रयोग है।
- सबद- 'सबद' में कबीर के गेय-पद संगृहीत हैं। इसमें कबीर के अलौकिक प्रेम और इनकी विशिष्ट साधना-पद्धति की अभिव्यक्ति हुई है।
- रमैनी- 'रमैनी' में कबीर के दार्शनिक एवं रहस्यवादी विचार व्यक्त हुए हैं। इसकी रचना 'चौपाई' छन्द में हुई है।
कबीरदास जी की काव्यगत विशेषताऍं
भाव पक्ष
कबीर का सुधारक रूप- कबीर अपने युग के सबसे महान् समाज-सुधारक, प्रतिभा सम्पन्न कवि एवं प्रभावशाली विचारक थे। नाथ सम्प्रदाय के योग मार्ग और हिन्दुओं के वेदान्त एवं भक्ति मार्ग का इन पर गहरा प्रभाव था। ये किसी भी बाह्य आडम्बर, कर्मकाण्ड एवं पूजा-पाठ की अपेक्षा पवित्र, नैतिक एवं सादे जीवन को अधिक महत्त्व देते थे। सत्य, अहिंसा, दया एवं संयम से युक्त धर्म के सामान्य स्वरूप में इनका विश्वास था। इनकी रचनाओं में हिन्दू एवं मुसलमानों दोनों के रूढ़िगत विश्वासों एवं धार्मिक कुरीतियों का विरोध खुली जुबान में मिलता है-
"पाहन पूजैं हरि मिलैं, तौ मैं पूजूॅं पहार।
यातै तौ चाकी भली, पीसि खाय संसार।।"
(मूर्ति पूजा का विरोध)
काॅंकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ मुल्ला बाॅंग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।
(बाह्य आडम्बरों का विरोध)
साधक या भक्त रूप- कबीर के आराध्य 'राम' दशरथ पुत्र श्रीराम न होकर निर्गुण-निराकार राम हैं। सहज साधना पर बल देने वाले कबीर के काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य 'निर्गुण सत्ता के प्रति ज्ञानपूर्ण भक्ति है।'
गुरु की महत्ता- कबीर जी ने गुरु की महत्ता पर बल दिया है। गुरु को ही सच्चा मार्ग-दर्शक बताया है। इन्होंने गुरु को कुम्हार और शिष्य को कच्चे घड़े के समान बताया
"गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।"
इन्होंने सच्चे गुरु की अनन्त महिमा बताई है। इन्होंने कहा कि ईश्वर का दर्शन एक गुरु ही करवा सकता है-
"सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपगार।
लोचन अनन्त उघाड़िया, अनन्त दिखावणहार।।"
सत्य की महिमा- कबीर जी ने सत्य और अहिंसा को जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग माना। सत्य को ही सबसे बड़ा तप कहा है-
"साॅंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।"
प्रेम की महत्ता- कबीर जी ने ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम को महत्त्व दिया है-
"ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पण्डित होय।"
इनके अनुसार, अपने अहंकार को मिटाकर ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है-
"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।"
कला पक्ष
सधुक्कड़ी भाषा- कबीर जी के व्यापक देशाटन के कारण इनकी भाषा में विभिन्न प्रादेशिक बोलियों का सम्मिश्रण है। उसमें अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी, संस्कृत, फारसी आदि का मिश्रण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी भाषा को 'सधुक्कड़ी' या 'पंचमेल खिचड़ी' कहा है, तो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भाषा पर अद्भुत अधिकार के कारण इन्हें 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है।
प्रवाहमयी शैली- कबीर की शैली उपदेशात्मक, व्यंग्यात्मक एवं भावात्मक है। उसमें अद्भुत प्रवाह, स्वाभाविकता एवं मार्मिकता है। इन्होंने जाति व वर्ण-व्यवस्था को महत्त्व देने की अपेक्षा सद्कर्म करने पर बल दिया-
"ऊॅंचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊॅंच न होई।
सोवन कलश सुरा भरा, साधु निंदै सोई।"
प्रतीकात्मकता एवं उलटबाॅंसियाॅं- कबीर ने रहस्यवादी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया है। कुछ अद्भुत अनुभूतियों को कबीर ने विरोधाभास के माध्यम से उलटबाॅंसियों की चमत्कारपूर्ण शैली में व्यक्त किया। इसमें मौजूद प्रतीकों का अर्थ खुलने पर उलटबाॅंसी का अर्थ स्पष्ट होता है। इनके प्रयोग से कबीर की शैली की व्यंजकता बढ़ी है।
ज्ञान की महत्ता- कबीर जी ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि थे। ज्ञान और नाम-स्मरण को प्रधानता देते हुए इन्होंने प्रभु-प्रेम की महत्ता प्रतिपादित की है। इनके राम, दशरथ पुत्र श्रीराम नहीं थे। ये तो अव्यक्त व कण-कण वासी ईश्वर को ही 'राम' कहकर सम्बोधित करते थे-
"अब न मरौं मरनैं मन माना, तेई मुए जिनि राम न जाना।।"
अलंकार एवं छन्द- अनुप्रास, यमक, रूपक, उपमा, अन्योक्ति, विरोधाभास, दृष्टान्त आदि अलंकार स्वाभाविक रूप से इनके काव्य में शोभा बढ़ाते हैं। कबीर ने अपनी काव्य रचना दोहा, चौपाई तथा गेय पदों में की है।
साहित्य में स्थान
वास्तव में कबीर जी परम योगी, महान् विचारक, सच्चे समाज सुधारक व ईश्वर के सच्चे साधक थे। इनकी बातें कर्णकटु होते हुए भी सद्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाली हैं। इनके द्वारा प्रवाहित की गई ज्ञान-गंगा आज भी सबको पवित्र करने वाली है। ये वास्तव में एक सच्चे सन्त थे। ये हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठतम विभूति थे। निर्गुण भक्तिधारा के पथ-प्रदर्शक के रूप में कबीर का नाम सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
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