Raskhan Ka Jivan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1533 ई॰ से सन् 1618 ई॰)
कितने ही मुसलमान कवियों ने हिन्दी-काव्य को समृद्ध करके अपने हिन्दी-प्रेम का परिचय दिया है, किन्तु इन सबमें सबसे अधिक सरस और सुकोमल काव्य यदि किसी का है तो वह रसखान का है। कविवर रसखान सच्चे कवि थे। ये भावों के सागर तथा रस की खान थे। वास्तव में ये भगवान् श्रीकृष्ण के दीवाने थे। इनके हृदय से निकली काव्य-पंक्तियाॅं सभी दृष्टियों से अद्वितीय हैं। डाॅ॰ राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी के शब्दों में, "रसखान भक्तिकाल के सुप्रसिद्ध, लोकप्रिय एवं सरस कवि थे। उनके सवैये हिन्दी-साहित्य में बेजोड़ हैं।"

जीवन परिचय- रसखान का नाम सैयद इब्राहीम था। इनका जन्म सन् 1533 ई॰ के लगभग दिल्ली में हुआ माना जाता है। इनका जीवन-वृत्त अभी भी अन्धकार में है। इनका सम्बन्ध दिल्ली के राजवंश से था। इस तथ्य पर निम्नलिखित दोहे से प्रकाश पड़ता है-

देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।

छिनहिं बादशा वंश की, ठसक छाड़ि रसखान।।

डाॅ॰ नगेन्द्र के अनुसार इन पंक्तियों में उल्लिखित 'गदर' और 'दिल्ली' के श्मशान बन जाने का समय विद्वानों ने सन् 1555 ई॰ अनुमानित किया है, क्योंकि इसी वर्ष मुगल-सम्राट् हुमायूॅं ने दिल्ली के सूरवंशीय पठानशासकों से अपना खोया हुआ शासनाधिकार पुनः हस्तगत किया था। इस अवसर पर भयंकर नर-संहार और विध्वंस होना स्वाभाविक था और कवि-प्रकृति के कोमलहृदय रसखान द्वारा उस 'गदर' के ताण्डव रूप को देखकर विरक्त हो जाना भी अस्वाभाविक नहीं। कवि ने जिस 'बादशाह-वंश' की 'ठसक' का त्याग किया, वह वही पठान (सूर) वंश प्रतीत होता है, जिसके शासन का उदय शेरशाह सूरी के साथ सन् 1528 ई॰ में हुआ और अन्त इब्राहीम खाॅं तथा अहमद खाॅं के पारस्परिक कलह के कारण सन् 1555 ई॰ में हुआ। इस 'गदर' के समय रसखान की आयु यदि 20 से 22 वर्ष मान ली जाए तो उनका जन्म सन् 1533 ई॰ के आस-पास स्वीकार किया जा सकता है। कुछ समय पहले तक यह माना जाता रहा है कि 'रसखान' पिहानी के सैयद इब्राहीम का ही उपनाम था, किन्तु परवर्ती अनुसन्धानों के आधार पर यह धारणा मिथ्या सिद्ध हो चुकी है। 'प्रेमवाटिका' में स्वयं कवि द्वारा दिल्ली छोड़कर गोवर्धन-धाम जाने के उल्लेख से उनका जन्म-स्थान एवं प्रारम्भिक निवास दिल्ली अथवा उसके आस-पास ही मानना उपयुक्त है।

एक जनश्रुति के अनुसार रसखान किसी स्त्री से बहुत प्रेम करते थे, किन्तु वह उन्हें अपमानित किया करती थी। वैष्णव धर्म में दीक्षा लेने पर इनका लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में बदल गया और रसखान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त बन गए।

रसखान रात-दिन श्रीकृष्ण के प्रेम में तल्लीन रहते थे। इन्होंने गोवर्धन-धाम में जाकर अपना जीवन श्रीकृष्ण के भजन-कीर्तन में लगा दिया। वैष्णव धर्म ग्रहण करने पर इन्हें सबने बहुत डराया, परन्तु श्रीकृष्ण के रंग में रॅंगे रसखान ने उत्तर दिया-

काहे को सोचु करै रसखानि, कहा करिहै रबिनंद बिचारो।

कौन की संक परी है जु, माखन चाखनवारो है राखनहारो।।

प्रसिद्ध है कि रसखान ने गोस्वामी विट्ठलनाथजी से वल्लभ-सम्प्रदाय के अन्तर्गत दीक्षा ली थी। उनके काव्य में अन्य वल्लभानुयायी कृष्णभक्त कवियों-जैसी प्रेम-माधुरी एवं भक्ति-शैली से इस बात की पुष्टि होती है। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्त्ता' में भी उन्हें वल्लभसम्प्रदायानुयायी बताया गया है। 'मूल गुसाईं चरित' में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्वचरित 'रामचरितमानस' की कथा सर्वप्रथम रसखान को सुनाने का उल्लेख हैः "जमुना तट पै त्रय वत्सर लौं, रसखानहिं जाई सुनावत भौ।" रसखान-काव्य के प्रायः सभी समीक्षक इस बात पर सहमत हैं कि 'प्रेमवाटिका' (सन् 1614 ई॰) उनकी अन्तिम काव्य-कृति है। सम्भवतः इसकी रचना के कुछ ही वर्ष पश्चात् सन् 1618 ई॰ के लगभग उनका स्वर्गवास हो गया होगा।

कृष्णभक्त कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रीकृष्ण की भक्ति में पूर्ण रूप से अनुरक्त होकर ही इन्होंने अपनी कविताऍं लिखीं। ये अरबी और फारसी के विद्वान् थे। काव्य और पिंगलशास्त्र का इन्होंने गहन अध्ययन किया था। ये अत्यन्त भावुक, सहृदय और प्रेमी जीव थे। रसखान श्रीकृष्ण के अनन्य प्रेमी थे। इसी कारण ये दिल्ली के शाही जीवन को त्यागकर ब्रज के कुंज-करीलों पर न्योछावर हो गए। कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम की भावना ने इन्हें कवि बना दिया। इनकी भक्ति गोपी भाव की थी। कृष्ण के बाल रूप एवं यौवन के अनेक मोहक रूप रसखान की कविताओं में चित्रित हुए हैं। इनके काव्य में संयोग और वियोग पर आधारित दोनों ही पक्षों की भावपूर्ण अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। श्रीकृष्ण की भक्ति, उनकी लीला-भूमि ब्रज तथा ब्रजभाषा में इनका प्रबल अनुराग, यही रसखान का सबकुछ था। वस्तुतः श्रीकृष्ण से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु अथवा स्थान से इनका अगाध प्रेम था। इन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण रूप से तन्मय एवं समर्पित होकर काव्य-रचना की। इनका सम्पूर्ण काव्य अत्यन्त सरस, मनोरम एवं मधुर है। काव्य के सभी गुणों का समावेश इनकी कविताओं में देखने को मिलता है।

रसखान के अब तक दो ग्रन्थ प्राप्त हैं-

  1. प्रेमवाटिका- इसमें केवल 25 दोहे हैं। रसखान ने प्रेम के विविध रूपों को हृदय से अनुभूत किया था; अतः स्वाभाविक रूप से इनके द्वारा रचित इस रचना में प्रेम रस का पूर्ण परिपाक हुआ है।
  2. सुजान-रसखान- यह 139 छन्दों (दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया) का संग्रह है। संक्षिप्त होने पर भी ये कृतियाॅं भक्तों के हृदय का स्पर्श करनेवाली हैं।

कुछ विद्वान् 'रसखान-शतक' और 'राग-रत्नाकर' को भी उनकी रचना मानते हैं, लेकिन ये ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं।

रसखान ने अपने काव्य में सरल और परिमार्जित शैली का प्रयोग किया है। इन्होंने कवित्त एवं सवैया छन्दों के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्ति दी है।

वास्तव में कृष्णभक्ति-काव्य में रसखान का अद्वितीय स्थान है।

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