Jagannath Das Ratnakar Ka Jeevan Parichay
(जीवनकाल सन् 1866 ई॰ से सन् 1932 ई॰)
जीवन परिचय- आधुनिक काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि जगन्नाथदास 'रत्नाकर' का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन् 1866 ई॰ में हुआ था। 'रत्नाकर' जी के पिता श्री पुरुषोत्तमदास भारतेन्दु जी के समकालीन, फारसी भाषा के विद्वान् और हिन्दी काव्य के मर्मज्ञ थे। भारतेन्दु जी ने बाल्यावस्था में ही इनके विषय में कहा था "यह लड़का कभी एक अच्छा कवि होगा।"
सन् 1891 ई॰ में वाराणसी के क्वीन्स कॉलेज से बी॰ ए॰ की डिग्री प्राप्त की। रत्नाकर जी पहले 'जकी' के उपनाम से उर्दू में कविता लिखा करते थे, बाद में वे 'रत्नाकर' उपनाम से हिन्दी में कविताऍं लिखने लगे। वे सन् 1902 ई॰ में अयोध्या-नरेश के निजी सचिव नियुक्त हुए और सन् 1928 ई॰ तक इसी पद पर रहे। सन् 1932 ई॰ में इनकी मृत्यु हरिद्वार में हुई।
राजदरबार से सम्बद्ध होने के कारण इनका रहन-सहन सामन्ती था, लेकिन इनमें प्राचीन धर्म, संस्कृति और साहित्य के प्रति गहरी आस्था थी। इन्हें प्राचीन भाषाओं का अच्छा ज्ञान था तथा ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं में गति भी थी।
साहित्यिक गतिविधियाॅं
इन्होंने 'साहित्य-सुधानिधि' और 'सरस्वती' के सम्पादन, 'रसिक मण्डल' के संचालन तथा 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना एवं उसके विकास में योगदान दिया।
जगन्नाथदास 'रत्नाकर' की प्रमुख रचनाऍं इस प्रकार हैं-
गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में साहित्य सृजन करने वाले रत्नाकर जी मूलतः कवि थे। इनकी प्रमुख कृतियों में हिंडोला, समालोचनादर्श, हरिश्चन्द्र, गंगालहरी, श्रृंगारलहरी, विष्णुलहरी, रत्नाष्टक, गंगावतरण तथा उद्धवशतक उल्लेखनीय हैं।
इनके अतिरिक्त इन्होंने सुधाकर, कविकुलकण्ठाभरण, दीप-प्रकाश, सुन्दर-श्रृंगार, हम्मीर हठ, प्रकीर्ण गद्यावली, रस विनोद, हिम तरंगिणी, बिहारी रत्नाकर आदि ग्रन्थों का सम्पादन भी किया।
काव्यगत विशेषताऍं
भाव पक्ष
भाव एवं रस- जगन्नाथदास 'रत्नाकर' जी ने अपने काव्य में मानव हृदय में समय-समय पर उठने वाले विविध भावों का बहुत ही सूक्ष्मता से निरूपण किया है। इनका काव्य सौष्ठव एवं काव्य संगठन नूतन तथा मौलिक है। इन्होंने मानव हृदय के कोने-कोने में झाॅंककर हृदय को गद्गद करने वाले चित्र प्रस्तुत किए हैं। इनके काव्य में लगभग सभी रस्गें को समुचित स्थान प्राप्त है, किन्तु संयोग श्रृंगार की अपेक्षा विप्रलम्भ श्रृंगार में अधिक सजीवता व मार्मिकता है तथा वीर, रौद्र व भयानक रसों का भी सुन्दर वर्णन है।
भक्ति भावना- श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त होने के कारण इनके काव्य में भक्ति-भाव का सुन्दर समावेश है।
प्रकृति चित्रण- इन्होंने अपने काव्य में स्वतन्त्र रूप से तथा उद्दीपन के रूप में प्रकृति का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है।
कला पक्ष
भाषा- जगन्नाथदास 'रत्नाकर' जी भाषा के मर्मज्ञ तथा शब्दों के आचार्य थे। सामान्यतया इन्होंने काव्य में प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा को ही अपनाया, लेकिन जहाॅं-तहाॅं बनारसी बोली का भी समावेश है। भाषा व्याकरण-सम्मत, मधुर एवं प्रवाहयुक्त है। वाक्य-विन्यास सुसंगठित एवं प्रवाहपूर्ण है। कहावतों एवं मुहावरों का भी कुशल प्रयोग किया है।
छन्द योजना- इन्होंने मुख्यतः रोला, छप्पय, दोहा, कवित्त एवं सवैया को अपनाया।
अलंकार योजना- अलंकारों का समावेश अत्यन्त स्वाभाविक तरीके से हुआ है, कहीं भी वह बोझिल नहीं बनाते। इन्होंने मुख्यतः रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, असंगति, स्मरण, प्रतीप, अनुप्रास, श्लेष, यमक आदि का प्रयोग किया।
इनकी रचनाओं में प्राचीन और मध्ययुगीन समस्त भारतीय साहित्य का सौष्ठव बड़े स्वस्थ, समुज्ज़्वल एवं मनोरम रूप में उपलब्ध होता है।
हिन्दी-साहित्य में स्थान
रत्नाकर जी है मेरी किरण जगमगाती रत्नों में से एक हैं जिनकी आभा चिरकाल तक बनी रहेगी फुल तो अपनी व्यक्तित्व एवं अपनी मान्यताओं को इन्होंने का भी सफल पानी प्रदान की है। उनकी साहित्यिक रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
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