Kedarnath Singh Ka Jivan Parichay

 (जीवनकाल सन् 1934 ई॰ से सन् 2018 ई॰)

जीवन परिचय- केदारनाथ सिंह का जन्म सन् 1934 ई॰ में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गॉंव में हुआ था। इनके पिता का नाम डोमन सिंह तथा माता का नाम लालझरी देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके गाॅंव के प्राथमिक विद्यालय से हुई। इन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से सन् 1956 ई॰ में हिन्दी में एम॰ ए॰ और सन् 1964 ई॰ में पी-एच॰डी॰ की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने अनेक कॉलेजों में पढ़ाया और अन्त में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए।

इन्होंने कविता व गद्य की अनेक पुस्तकें रची हैं। इन पर इन्हें अनेक सम्माननीय सम्मानों से सम्मानित किया गया। ये समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इनकी कविता में गॉंव व शहर का द्वन्द्व स्पष्ट दृष्टिगत है। 'बाघ' इनकी प्रमुख लम्बी कविता है, जिसे नयी कविता के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जा सकता है।

इनके कविता-संग्रह 'अकाल में सारस' के लिए इन्हें सन् 1989 ई॰ का साहित्य अकादमी पुरस्कार मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशातन पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

हिन्दी साहित्य अकादमी के वर्ष 2009-10 के प्रतिष्ठित और सर्वोच्च शलाका सम्मान से भी इनको सम्मानित किया गया, किन्तु इन्होंने हिन्दी और हिन्दी की सच्ची सेवा करनेवालों को उचित सम्मान न दिए जाने के विरोध में इस सम्मान को ठुकरा दिया। वर्ष 2013 ई० के ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया।

केदारनाथ सिंह जी ने कुछ भावपूर्ण पंक्तियाॅं लिखीं हैं, जिनमें उन्होंने ये बताया है कि वे मरनें के बाद भी कहीं न कहीं जीवित रहेंगे।

"जाऊंगा कहाॅं, रहूॅंगा यहीं

किसी किवाड़ पर, हाथ के निशान की तरह

पड़ा रहूंगा किसी पुराने ताखे, या सन्दुक की गन्ध में"

उपर्युक्त कविता की आखरी पंक्ति के साथ ही हिन्दी साहित्य का यह अनमोल कवि केदारनाथ सिंह जी का 19 मार्च, सन् 2018 ई॰ को सोमवार शाम को नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एम्स) हाॅस्पिटल में 84 वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हो गया।

केदारनाथ सिंह की प्रमुख रचनाऍं इस प्रकार हैं-

'अभी बिल्कुल अभी', 'जमीन पक रही है', 'यहॉं से देखो', 'अकाल में सारस', 'उत्तर कबीर और अन्य कविताऍं', 'बाघ', 'तालस्ताय और साइकिल'।

केदारनाथ सिंह की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी कविताओं का विषय अथवा प्रतिपाद्य भले ही कुछ भी हो, किन्तु वे कहीं भी अपनी सभ्यता, संस्कृति, लोकतत्त्व, भाषाई सिद्धपन, मानवता और अपनी जमीन से कहीं नहीं कटते। इनसे इनका जुड़ाव शाश्वत और सकारात्मक है। भाषा में कहीं भी  पाण्डित्य-प्रदर्शन का प्रयास कवि द्वारा नहीं किया गया है।

इनकी कविताओं में सर्वत्र निराशा में भी आशा की किरण दिखाई देती है, पतझड़ में भी वसन्त के आगमन की पदचाप सुनाई पड़ती है। जन-जन में मानव-मूल्यों के संचार का इनका प्रयास भी पदे-पदे दृष्टिगत होता है। इनकी यही सब विशेषताऍं इन्हें आधुनिक कवियों में सबसे अलग, किन्तु उच्चश्रेणी में खड़ा करती हैं।

इनकी कविता की भाषा बोलचाल की सहज हिन्दी है, किन्तु उसकी प्रवाहात्मकता नदी की जलधारा के समान अविचल और अविरल है। काव्य में भाषा का परिष्कार करते ये अकेले ही दृष्टिगत होते हैं। इनकी काव्य-भाषा के विषय में कहा गया है कि भाषा के सम्बन्ध में इनका संशय उत्तरोत्तर बढ़ा है और ये इस बात की लगातार शिनाख्त करते दिखाई देते हैं कि भाषा कहाॅं है, कैसे बचेगी और कहाॅं विफल है, कहाॅं विकसित किए जाने की आवश्यकता है। इस क्रम में उन्हें इस बात का आभास भी होता है कि भाषा को अभी विकसित होना बचा है-

                जितनी वह चुप थी 

                बस उतनी ही भाषा 

            बची थी मेरे पास

वस्तुतः केदारनाथ सिंह लगातार भाषा की मुक्ति की ओर झुके हुए हैं, उसके स्वभाव को समझने में लगे हैं और उसमें गुणात्मक परिवर्तन भी उनकी भाषा में चुपचाप घटित हो रहा है, जो उनकी कविता तक सीमित नहीं रहता है; क्योंकि उन्होंने उस भाषा को ऐसी कृतियों में बाॅंधा है, जो समय पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाने में समर्थ है।

अन्ततः उनकी काव्य-दृष्टि के विषय में यही कहा जा सकता है कि उनकी कविता में मनुष्य की अक्षय ऊर्जा तथा अदम्य जिजीविषा है और परम्परा से मिली दिशाऍं हैं, जिनका सन्धान उन्होंने आवश्यकतानुसार अपनी पिछली जिन्दगी की ओर मुड़कर भी किया है। वे अपने काव्य-सृजन में आगे बढ़ते रहे हैं, किन्तु पीछे का नष्ट नहीं करते, बल्कि उसकी भी कोई-न-कोई लीक बची रहती है, जहाॅं आवश्यकतानुसार वे लौटते हैं।

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